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जाड़े में तो ठिठुर-ठिठुर कर, बड़ी देर से जग पाता!

सूरज के कितने रूप
-नन्‍द कुमार मनोचा वारिज

देखो सूरज को तुम बाबा कितने रूप बदलता है।
तपता गर्मी के मौसम में, हर पल आग उगलता है।

जब आते हैं काले बादल, डर कर यह छुप जाता है।
नजर नहीं आता कितन दिन बैठ दुबक बस जाता है।

जाड़े में तो ठिठुर-ठिठुर कर, बड़ी देर से जग पाता।
कुछ घंटों में छुट्टी लेकर, खाट पकड़ कर सो जाता।

जब बसंत का मौसम आता, यह कोयल के संग गाता।
ठंडी मीठी खुश्‍बू वाली शुद्ध वायु में मद माता।

पतझर में जब झरते पत्‍ते नंग-धडंग हो जाते पेड़।
खिल खिल कर यह हंसता रहता सब को देता दूर खदेड़।

पूर्व दिशा से जब उगता यह रहता हरदम लालो लाल।
पश्चिम में अस्‍तंगत होता तब भी रहता लालो लाल।

बोले बाबा-अगर न होता सूरज का यह अविरल खेल।
तो हम कभी न जीवित होते सारा जग हो जाता फेल।

8 टिप्पणियाँ:

Sunil Kumar said...

यह बालकविता तो बड़ों की भी गयी सुंदर अतिसुन्दर , बधाई रचियता को आभार आपका प्रस्तुति के लिए ..

इस्मत ज़ैदी said...

बोले बाबा-अगर न होता सूरज का यह अविरल खेल।
तो हम कभी न जीवित होते सारा जग हो जाता फेल।

waah !!

mridula pradhan said...

बोले बाबा-अगर न होता सूरज का यह अविरल खेल।
तो हम कभी न जीवित होते सारा जग हो जाता फेल।
wah.....bahot sunder.

मेरा मन पंछी सा said...

bahut acchi kavita hai.

दिगम्बर नासवा said...

बच्छों के साथ साथ बड़ों को भी पसंद आ रही है ये गज़ल ... बहुत लाजवाब है ...

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

बहुत सुन्दर कल्पना ..सुन्दर बाल गीत
शुक्ल भ्रमर ५

पतझर में जब झरते पत्‍ते नंग-धडंग हो जाते पेड़।
खिल खिल कर यह हंसता रहता सब को देता दूर खदेड़।

HPS SR. SEC. SCHOOL said...

Excellent poem.
Not for kids for old age people also.
All the best.
Heartiest congrats.

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत अच्‍छी कविता।